निराशा के काले बादल
इस शहर मे कहीं भी हमारा ठिकाना नहीं।
यहाँ रूकने का कोई भी बहाना नहीं।।
न जाने क्या सोचकर हम यहाँ पर आ गए।
जहाँ उम्मीद थी वहाँ नाउम्मीदी के बादल छा गए।।
वफा की उम्मीद करो जहाँ, वहाँ से वफा न मिले
किसी को भी इंसान होने की इतनी बड़ी सजा न मिले
अपने लिए तो ये दुनिया रेगिस्तान है रेगिस्तान
इस बंजर जमीन पर प्यार का फूल कैसे खिले।।
चलो अब किसी और राह पर चलें।
जिस पर चलने से हमे हमारी मंजिल मिले।।
इक कहानी जो शुरू होते ही खत्म हो गई।
चलो उसे ढूँढे जो भीड़ मे कहीं खो गई।।
खुदा की खुदाई पर अब भरोसा कहाँ।
जो हमे समझ सके ऐसा कोई कहाँ।।
दुष्मनों के सिवा कोई भी नहीं है इस दुनिया मे।
वही घिसी-पिटी जिन्दगी मिले, चाहे जायें हम जहाँ।।
अपने भोलेपन का लोगों ने खूब सिला दिया।
अपनों ने ही पीठ पीछे खंजर चुभा दिया।।
परायों को अपना समझने की भूल हम कई बार कर गए।
तब समझ मे आया ये सब, जब तड़प-तड़प कर मर गए।।
जिन्दगी के बोझ को ढ़ोना कितना मुश्किल हो गया।
इस दुनिया मे खुद को ढूँढना कितना मुश्किल हो गया।।
बेसहारा हो अगर कोई तो यही आलम होता है।
किसी सहारे की तलाश मे, बस अपनी आँखें भिगोता है।।
गुस्से का तूफान रोके नहीं रोका जाता।
नफरत का लावा है कि अंदर भरता ही जाता।।
दो सुकून के पल न मिले किसी को तो ऐसा ही होता है।
देवता समान आदमी भी किसी के लिए राक्षस बन जाता है।।
कैसी जिन्दगी है कि अपने आप से ही जंग हो गई।
इतनी बड़ी दुनिया ही मेरे लिए मानो तंग हो गाई।
बिना कुछ किए मानो अब मै रह नहीं पाऊँगा।
या तो दुनिया को मिटा दूँ या फिर खुद मिट जाऊँगा।।
इस शहर मे कहीं भी हमारा ठिकाना नहीं।
यहाँ रूकने का कोई भी बहाना नहीं।।
न जाने क्या सोचकर हम यहाँ पर आ गए।
जहाँ उम्मीद थी वहाँ नाउम्मीदी के बादल छा गए।।
वफा की उम्मीद करो जहाँ, वहाँ से वफा न मिले
किसी को भी इंसान होने की इतनी बड़ी सजा न मिले
अपने लिए तो ये दुनिया रेगिस्तान है रेगिस्तान
इस बंजर जमीन पर प्यार का फूल कैसे खिले।।
चलो अब किसी और राह पर चलें।
जिस पर चलने से हमे हमारी मंजिल मिले।।
इक कहानी जो शुरू होते ही खत्म हो गई।
चलो उसे ढूँढे जो भीड़ मे कहीं खो गई।।
खुदा की खुदाई पर अब भरोसा कहाँ।
जो हमे समझ सके ऐसा कोई कहाँ।।
दुष्मनों के सिवा कोई भी नहीं है इस दुनिया मे।
वही घिसी-पिटी जिन्दगी मिले, चाहे जायें हम जहाँ।।
अपने भोलेपन का लोगों ने खूब सिला दिया।
अपनों ने ही पीठ पीछे खंजर चुभा दिया।।
परायों को अपना समझने की भूल हम कई बार कर गए।
तब समझ मे आया ये सब, जब तड़प-तड़प कर मर गए।।
जिन्दगी के बोझ को ढ़ोना कितना मुश्किल हो गया।
इस दुनिया मे खुद को ढूँढना कितना मुश्किल हो गया।।
बेसहारा हो अगर कोई तो यही आलम होता है।
किसी सहारे की तलाश मे, बस अपनी आँखें भिगोता है।।
गुस्से का तूफान रोके नहीं रोका जाता।
नफरत का लावा है कि अंदर भरता ही जाता।।
दो सुकून के पल न मिले किसी को तो ऐसा ही होता है।
देवता समान आदमी भी किसी के लिए राक्षस बन जाता है।।
कैसी जिन्दगी है कि अपने आप से ही जंग हो गई।
इतनी बड़ी दुनिया ही मेरे लिए मानो तंग हो गाई।
बिना कुछ किए मानो अब मै रह नहीं पाऊँगा।
या तो दुनिया को मिटा दूँ या फिर खुद मिट जाऊँगा।।
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